छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति में नंगाड़ा
गजेन्द्र कुमार
सहायक प्राध्यापक, इतिहास विभाग, शासकीय महाविद्यालय, बाजार अतरिया,
जिला- खैरागढ़-छुईखदान-गंडई (छत्तीसगढ़)
*Corresponding Author E-mail: gajendrasahu1991@gmail.com
ABSTRACT:
यह शोध पत्र छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर नगाड़ा पर केंद्रित है, जो राज्य की लोक परंपराओं, धार्मिक आयोजनों और सामाजिक जीवन का अभिन्न हिस्सा है। नगाड़ा केवल एक वाद्य यंत्र नहीं है, बल्कि यह छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक पहचान और ऐतिहासिक परंपरा का प्रतीक है। यह शोध नगाड़ा निर्माण की प्रक्रिया, इसके ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व, इसके उपयोग और वर्तमान समय में इस कला के समक्ष आने वाली चुनौतियों पर विस्तृत रूप से प्रकाश डालता है। शोध में यह पाया गया है कि नगाड़े का निर्माण मिट्टी, लकड़ी और चमड़े जैसे पारंपरिक और प्राकृतिक सामग्रियों से किया जाता है, जो शिल्पकारों की पारंपरिक विशेषज्ञता को दर्शाता है। नगाड़ा छत्तीसगढ़ के विभिन्न सामाजिक और धार्मिक अनुष्ठानों, त्योहारों, लोक नृत्यों और पारंपरिक आयोजनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके अलावा, ऐतिहासिक संदर्भों से यह स्पष्ट होता है कि नगाड़ा प्राचीन काल से ही लोक संगीत और सामाजिक संरचना का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। हालांकि, आधुनिकता और शहरीकरण के प्रभाव के कारण नगाड़ा निर्माण और इसका उपयोग संकट का सामना कर रहा है। पारंपरिक शिल्पकारों की घटती संख्या, आधुनिक संगीत उपकरणों का बढ़ता प्रचलन, और सांस्कृतिक विरासत के प्रति घटती रुचि इस कला के लिए गंभीर खतरा हैं। शोध पत्र इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि नगाड़े की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर को संरक्षित करने के लिए सरकार, समाज और स्थानीय समुदायों के सामूहिक प्रयास आवश्यक हैं। इसके संरक्षण से न केवल छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विविधता को बचाया जा सकता है, बल्कि इसे आने वाली पीढ़ियों के लिए एक मूल्यवान धरोहर के रूप में भी प्रस्तुत किया जा सकता है।
KEYWORDS: नगाड़ा, ढोल, वाद्ययंत्र, छत्तीसगढ़, सांस्कृतिक धरोहर, लोक संगीत, परंपरागत शिल्प, संरक्षण।
INTRODUCTION:
यह शोध पत्र छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति में नंगाड़ा पर केंद्रित है, जिसका उद्देश्य नगाड़ा के निर्माण की प्रक्रिया, इसकी सांस्कृतिक और धार्मिक भूमिका, और इसके संरक्षण की आवश्यकता को स्पष्ट करना है। नगाड़ा केवल एक वाद्य यंत्र नहीं है, बल्कि यह छत्तीसगढ़ की ऐतिहासिक पहचान, सामाजिक संरचना और धार्मिक विश्वासों का प्रतीक है। इस शोध पत्र के माध्यम से यह समझने की कोशिश की जाएगी कि नगाड़ा निर्माण कला का विकास कैसे हुआ और यह किस प्रकार से छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षक के रूप में कार्य करता है। इसके निर्माण की तकनीकी प्रक्रिया, उपयोग की पारंपरिक विधियाँ, और इसके सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व पर विस्तार से चर्चा की जाएगी। साथ ही, इस कला के संरक्षण और भविष्य में इसके उपयोग की दिशा पर भी विचार किया जाएगा, ताकि यह संस्कृति आने वाली पीढ़ियों तक जीवित रह सके।
नगाड़ा क्या है?
नगाड़ा एक प्राचीन वाद्ययंत्र है यह अर्धगोलेकार का एक प्रकार का ढोल है जिसके पीछे का भाग गोलाकार होता है। प्रायः इसे जोड़े में ही लकड़ी के दो डंडों की मदद से बजाया जाता है जिसे बठेना कहते हैं। इसे संस्कृत में दुन्दुभि कहते हैं।
जय कृपा कंद मुकुंद द्वंद हरन सरन सुखप्रद प्रभो।
खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो।
सुर सुमन बरषहिं हरष संकुल बाज दुंदुभि गहगही।
संग्राम अंगन राम अंग अनंग बहु सोभा लही।1
भावार्थ
हे कृपा के कंद! हे मोक्षदाता मुकुंद! हे (राग-द्वेष, हर्ष-शोक, जन्म-मृत्यु आदि) द्वंद्वों के हरनेवाले! हे शरणागत को सुख देने वाले प्रभो! हे दुष्ट दल को विदीर्ण करनेवाले! हे कारणों के भी परम कारण! हे सदा करुणा करने वाले! हे सर्वव्यापक विभो! आपकी जय हो। देवता हर्ष में भरे हुए पुष्प बरसाते हैं, घमाघम नगाड़े बज रहे हैं। रणभूमि में राम के अंगों ने बहुत-से कामदेवों की शोभा प्राप्त की।
नगाड़ा के प्रकार-
नगाड़ा छत्तीसगढ़ में मुख्य रूप से दो प्रकार के होते है। पहला ठीन या तारी और दूसरा गद्द दोनों नगाड़ों में खोल एक ही प्रकार के होते है, सिर्फ खोल में छाए जाने वाले चमड़े का फरक होता है। जिसके कारण ध्वनि अलग-अलग होती है। टिन की ध्वनि पतली और गद्द की ध्वनि मोटी होती है। इन दोनों नगाड़ों को एक साथ बजाया जाता है।
नगाड़ा बनाने की प्रक्रिया2
नगाड़े निर्माण के लिए निम्नलिखित सामग्री की आवश्यकता होती है
ढांचा (हांडी)
चमड़ा
बठेना (बजाने का डंडा)
ढांचाः-
मिट्टी का चयन और तैयारी- ढांचा (हांडी) बनाने की प्रक्रिया मिट्टी के सही चयन से शुरू होती है। कुम्हार इसके लिए चिकनी और लचीली मिट्टी चुनते हैं, जो आकार देने के लिए उपयुक्त हो और पकने पर मजबूत बन सके। चयनित मिट्टी को साफ किया जाता है, जिसमें कंकड़ और अन्य अशुद्धियां हटाई जाती हैं। इसके बाद मिट्टी को पानी मिलाकर गूंधा जाता है, ताकि यह नरम और लचीली बन जाए। इस प्रक्रिया में कुम्हार का अनुभव महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि मिट्टी का सही अनुपात ही मटके की गुणवत्ता सुनिश्चित करता है।
चाक पर आकार देनाः- मिट्टी तैयार होने के बाद कुम्हार इसे चाक पर रखते हैं। चाक एक गोल घूर्णन उपकरण है, जिसे हाथ, पैर या डंडे से घुमाया जाता है। कुम्हार चाक के घूमने के साथ-साथ अपने हाथों और उंगलियों की मदद से मिट्टी को आकार देते हैं। सबसे पहले गोल आकृति तैयार की जाती है, और फिर धीरे-धीरे उसकी मुँह बनाया जाता है। यह चरण अत्यधिक ध्यान और सटीकता की मांग करता है। कुम्हार का यह हुनर पीढ़ियों से चला आ रहा है, जो आज भी आकर्षण का केंद्र है।
सूखने की प्रक्रियाः- ढांचा तैयार होने के बाद इसे चाक से हटाकर छांव में रखा जाता है। इस दौरान इसे पूरी तरह सूखने दिया जाता है, ताकि उसमें दरारें न पड़ें। छांव में सूखने के बाद धूप में रखा जाता है, जिससे इसकी नमी पूरी तरह खत्म हो जाए। यह प्रक्रिया धीमी लेकिन आवश्यक है, क्योंकि अधूरी तैयारी ढांचे की मजबूती को प्रभावित कर सकती है।
भट्ठी में पकाना (धूम्र तकनीक):- सूखने के बाद ढांचे को भट्ठी में पकाने के लिए ले जाया जाता है। भट्ठी मिट्टी को मजबूत और टिकाऊ बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ढांचे को एक बंद भट्टी में रखा जाता है। भट्टी में गोबर, लकड़ी की छीलन, पत्तियां, और अन्य जैविक पदार्थ जलाए जाते हैं। भट्टी को पूरी तरह से बंद कर दिया जाता है, जिससे अंदर ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। इस प्रक्रिया को कार्बनाइजेशन कहते हैं। ऑक्सीजन की कमी और जलते हुए जैविक पदार्थों से मटकों पर काले रंग की कोटिंग बन जाती है। इस प्रकार उपरोक्त प्रक्रिया से खोल या ढांचा प्राप्त चर्मकार के घर पहुचाया जाता है।3
चमड़ा (खाल)
चमड़े का चयन और तैयारीः- नगाड़े के लिए मोटे और टिकाऊ चमड़े का चयन किया जाता है। आमतौर पर, भैंस, गाय या बकरी की खाल का उपयोग होता है। तारी या ठीन नगाड़े के लिए बकरी के चमड़े व गद्द के लिए भैंस या बैल के खालों का उपयोग किया जाता है। खाल को साफ किया जाता है और इसे मटमैले पदार्थ, बाल और अशुद्धियों से मुक्त किया जाता है। चमड़े को पानी में भिगोया जाता है, ताकि यह मुलायम और खिंचाव के लिए तैयार हो सके।
चमड़े को आकार देनाः- भिगोई हुई खाल को नगाड़े के ढांचे के अनुसार काटा जाता है। नगाड़ा गोलाकार होता है, इसलिए खाल को इस आकार में काटा जाता है।
खाल को कसना और बांधनाः- खाल को नगाड़े के ढांचे पर रखा जाता है। इसे कसने के लिए चमड़े की डोरियों (बाधी) का उपयोग किया जाता है। डोरियों को नगाड़े के किनारों से जोड़कर खाल को खींचा जाता है, ताकि यह ढांचे पर पूरी तरह से तनी हुई हो। यह सुनिश्चित किया जाता है कि खाल में कोई झुर्रियां न हों और वह समान रूप से फैली हो। खाल को खींचने की प्रक्रिया नगाड़े की ध्वनि गुणवत्ता पर निर्भर करती है। खाल को कसकर खींचा जाता है, ताकि नगाड़ा गहरी और गूंजती हुई ध्वनि उत्पन्न कर सके। यह प्रक्रिया हाथ और औजारों की मदद से की जाती है। खाल छाने के बाद नगाड़े पर हल्की थाप देकर उसकी ध्वनि का परीक्षण किया जाता है। यदि ध्वनि असंतुलित हो, तो खाल को और अधिक कसकर खींचा जाता है या ढीला किया जाता है। यह सुनिश्चित किया जाता है कि नगाड़े की गूंजती हुई ध्वनि स्पष्ट और प्रभावशाली हो।
अंतिम परिष्करणः- खाल को कसने के बाद अतिरिक्त चमड़े को काटकर हटा दिया जाता है। खाल पर थोड़ा तेल लगाया जाता है, जिससे यह अधिक टिकाऊ और लचीला बन सके। नगाड़े के बाहरी हिस्से को रंग या डिजाइन से सजाया जा सकता है, ताकि वह आकर्षक दिखे।
बठेना (बजाने का डंडा)
सामग्री का चयनः- नगाड़ा बजाने के लिए बठेना लकड़ी या बांस से बनाया जाता है। सबसे आम सामग्री लकड़ी होती है, क्योंकि यह हल्की और मजबूत होती है। लकड़ी के बठेना की बनावट बजाने में सुविधाजनक होती है और यह ध्वनि को प्रभावी तरीके से उत्पन्न करती है। बांस के बठेना का उपयोग अधिक लचीलेपन के लिए किया जाता है। बांस हल्का होता है और इसकी ध्वनि नर्म और स्पष्ट होती है।
आकार और लंबाई का निर्धारणः- बठेना का आकार और लंबाई नगाड़े के आकार और बजाने वाले की शैली पर निर्भर करते हैं। सामान्य रूप से, नगाड़ा बजाने के लिए बठेना की लंबाई 12 से 18 इंच तक होती है। बठेना की मोटाई भी महत्वपूर्ण होती है। मोटे बठेना से गहरी और भारी ध्वनि उत्पन्न होती है, जबकि पतले बठेना से तेज और हल्की ध्वनि आती है।4
इस प्रकार उपरोक्त प्रक्रिया से नगाड़ा का निर्माण किया जाता है। नगाड़ा भारतीय संगीत का एक महत्वपूर्ण वाद्ययंत्र है, और इसके निर्माण की प्रक्रिया में उच्च गुणवत्ता और कड़ी मेहनत की आवश्यकता होती है। नगाड़े की ध्वनि और उसकी स्थिरता पूरी तरह से निर्माण प्रक्रिया पर निर्भर करती है, जिसमें ढांचा, चमड़ा और लकड़ी के सही चुनाव से लेकर, खाल को कसने और ध्वनि का परीक्षण करने तक की सभी प्रक्रियाएँ शामिल हैं।
नगाड़ा का इतिहासः
नगाड़ा का इतिहास बहुत पुराना है, और इसे भारतीय संगीत वाद्य यंत्रों की एक प्राचीन श्रेणी में रखा जाता है। भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों में इस वाद्य यंत्र का प्रचलन सदियों पुराना है, और इसे धार्मिक अनुष्ठानों, उत्सवों और सामाजिक आयोजनों में बजाने की परंपरा रही है। नगाड़ा का उल्लेख प्राचीन भारतीय ग्रंथों और धार्मिक शास्त्रों में भी मिलता है, जो इसके लंबे इतिहास को दर्शाता है।
प्राचीन कालः
प्राचीन भारतीय संस्कृति में संगीत का अत्यधिक महत्व था, और इस संदर्भ में वाद्य यंत्रों का विशेष स्थान था। वैदिक काल में संगीत और नृत्य के साथ-साथ वाद्य यंत्रों का प्रयोग धार्मिक अनुष्ठानों और यज्ञों में किया जाता था। कुछ धार्मिक ग्रंथों, जैसे कि ऋग्वेद और महाभारत में नगाड़े का उल्लेख किया गया है, जो यह संकेत देते हैं कि प्राचीन काल में भी इस वाद्य यंत्र का महत्व था। ऋग्वेद में जहां यज्ञों और पूजा-पाठ के समय संगीत वाद्य यंत्रों का उपयोग बताया गया है, वहीं महाभारत में नगाड़े को युद्ध भूमि में शंख और ढोल के साथ बजाने का उल्लेख मिलता है, जिससे युद्ध के आरंभ और अन्य महत्वपूर्ण घटनाओं का संकेत दिया जाता था।
मुगल कालः
मुगल काल में “नक्कारखाना” नामक स्थानों पर इसे प्रमुख सरकारी निर्णयों की घोषणा के लिए बजाया जाता था, नक्कारखाना का अर्थ है, वह जगह जहां नक्कारे या नगाड़े बजते हैं. नक्कारखाने को नौबतखाना भी कहा जाता है. इसका शाब्दिक अर्थ है, ड्रम (नक्कारध्नौबत) - घर (खाना). समारोहों के दौरान, ड्रम हाउस या ऑर्केस्ट्रा पिट के लिए नक्कारखाना शब्द का इस्तेमाल किया जाता है।
आधुनिक कालः
आधुनिक काल में नगाड़े का स्वरूप और उपयोग काफी हद तक पारंपरिक परंपराओं से प्रभावित रहा है। हालांकि नगाड़े की ध्वनि और संरचना में कुछ बदलाव जरूर आए हैं, लेकिन इसका सांस्कृतिक महत्व और उपयोग आज भी जस का तस बना हुआ है। छत्तीसगढ़ के ग्रामीण क्षेत्रों में नगाड़ा अब भी विवाह, धार्मिक अनुष्ठान, मेलों और सामाजिक आयोजनों में एक अनिवार्य हिस्सा बना हुआ है।
नगाड़ा का उपयोगः-
नगाड़े का युद्ध में उपयोगः
उत्साहवर्धन और उत्साह का संचार:- नगाड़ा युद्ध के मैदान में सैनिकों के मनोबल को ऊँचा करने के लिए बजाया जाता था। जब युद्ध के मैदान में बुरी स्थिति होती थी और सैनिक थक चुके होते थे, तो नगाड़े की गहरी, गूंजती ध्वनि उन्हें एक नई ऊर्जा और प्रेरणा प्रदान करती थी। नगाड़े की तेज आवाज एक प्रकार से सैनिकों को आत्मविश्वास और वीरता की भावना से भर देती थी। यह आवाज युद्ध के मैदान में सैनिकों को याद दिलाती थी कि वे अपने देश और सम्मान के लिए लड़ रहे हैं।
सैन्य का मनोबल बनाए रखनाः- प्राचीन काल में, युद्ध के दौरान सैनिकों का मानसिक स्थिति बहुत महत्वपूर्ण होती थी। नगाड़े की आवाज से न केवल सैनिकों को साहस मिलता था, बल्कि यह उनके मानसिक रूप से तैयार होने में भी मदद करती थी। नगाड़े की आवाज के साथ यदि युद्ध के आदेश दिए जाते थे, तो यह सैनिकों में समन्वय बनाए रखने में सहायक होती थी और एक प्रकार से उन्हें एकजुट करने का काम करती थी।
युद्ध की शुरुआत और अंत का संकेतः- नगाड़े का उपयोग युद्ध की शुरुआत और अंत को चिह्नित करने के लिए भी किया जाता था। जब युद्ध शुरू होता था, तो नगाड़े की आवाज से यह संकेत मिलता था कि अब सैनिकों को लड़ाई शुरू करने का समय आ गया है। इसी प्रकार, युद्ध समाप्त होने के बाद, नगाड़े की आवाज से यह स्पष्ट होता था कि युद्ध खत्म हो चुका है। यह सैनिकों के लिए एक मानसिक राहत का कारण बनता था, क्योंकि वे जानते थे कि अब संघर्ष समाप्त हो चुका है।
दुश्मन को डरानाः- नगाड़े की गहरी और गूंजती आवाज केवल सैनिकों के लिए ही नहीं, बल्कि दुश्मन के लिए भी एक भय का कारण बनती थी। प्राचीन युद्धों में नगाड़े का उपयोग दुश्मन के मन में डर पैदा करने के लिए भी किया जाता था। इसकी तेज आवाज से दुश्मन की सेना को यह प्रतीत होता था कि उनके सामने एक शक्तिशाली और संगठनबद्ध सेना खड़ी है। यह मानसिक दबाव दुश्मन की रणनीति को प्रभावित कर सकता था।
नौकायान प्रतियोगिता में नगाड़े का योगदानः
नाविकों के उत्साहवर्धन में नगाड़े की भूमिका- नौकायान प्रतियोगिता में विभिन्न प्रकार की नावों में सवार नाविक एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं, और यह एक शारीरिक रूप से कठिन और चुनौतीपूर्ण खेल होता है। इस दौरान नाविकों के मनोबल को बनाए रखने के लिए नगाड़ा बजाया जाता है। नगाड़े की तेज और गहरी आवाज से नाविकों को एक नई ऊर्जा मिलती है। जैसे ही नाविकों के हाथों में चप्पू होते हैं, नगाड़े की गूंज उन्हें प्रेरित करती है और उनकी गति में निरंतरता बनाए रखती है। इसके अतिरिक्त, जब नाविक थककर रुकने के करीब होते हैं, तो नगाड़ा उन्हें उत्साहित करता है और उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है।
लय और ताल बनाए रखनाः- नौकायान प्रतियोगिता में एक विशेष लय और ताल का पालन किया जाता है, ताकि सभी नाविक एक साथ ेलदबीतवदप्रमक रूप से कार्य करें। इस लय को बनाए रखने के लिए नगाड़े का उपयोग किया जाता है। जब नगाड़ा बजता है, तो यह एक संकेत की तरह काम करता है और सभी नाविकों को एक साथ चप्पू मारने के लिए प्रेरित करता है। नगाड़े की ताल और ध्वनि के साथ नाविकों की गति पूरी तरह से मेल खाती है, जिससे उनकी नाव तेजी से और समान गति से आगे बढ़ती है। यह एक प्रकार से टीमवर्क और समन्वय को बढ़ावा देता है, जो प्रतियोगिता में जीत की कुंजी होती है।
संगठन और प्रेरणा का प्रतीकः- नौकायान प्रतियोगिता में जब नगाड़े की आवाज गूंजती है, तो यह केवल संगीत का हिस्सा नहीं होती, बल्कि यह एक मानसिक संकेत होती है, जो नाविकों को यह याद दिलाती है कि वे किसी बड़ी और महत्वपूर्ण चुनौती का सामना कर रहे हैं। यह नाविकों को एकजुट करता है और उनके बीच सहयोग की भावना को मजबूती प्रदान करता है। इस प्रकार, नगाड़ा न केवल एक संगीत वाद्ययंत्र होता है, बल्कि यह एक मानसिक प्रेरणा का स्रोत भी बनता है।
होली पर्व में नगाड़ा का उपयोगः
हिंदू पंचांग के अनुसार, होली वर्ष का अंतिम पर्व होता है। इस दिन राक्षसों के राजा हिरण्यकश्यप ने अपनी तपस्या से भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न कर लिया और यह वरदान प्राप्त किया कि उसे न दिन में, न रात में, न पृथ्वी पर, न आकाश में, न किसी मनुष्य द्वारा, और न ही किसी अस्त्र-शस्त्र द्वारा मारा जा सके। इस वरदान के कारण हिरण्यकश्यप अहंकारी हो गया और स्वयं को भगवान मानने लगा। उसने सभी को आदेश दिया कि वे केवल उसकी पूजा करें।
लेकिन उसका पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का अनन्य भक्त था और उसने अपने पिता के आदेश को मानने से इनकार कर दिया। इससे हिरण्यकश्यप क्रोधित हो गया और उसने प्रह्लाद को कई यातनाएँ दीं, लेकिन प्रह्लाद की भक्ति अटल रही।
आखिरकार, हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका की सहायता ली। होलिका को यह वरदान था कि वह आग में नहीं जलेगी। होलिका प्रह्लाद को लेकर आग में बैठ गई, ताकि प्रह्लाद जलकर मर जाए। लेकिन भगवान विष्णु की कृपा से होलिका का वरदान विफल हो गया और वह स्वयं जलकर भस्म हो गई, जबकि प्रह्लाद सुरक्षित बच गया। होलिका दहन के दिन इसी घटना की याद में अग्नि प्रज्ज्वलित की जाती है, जिसे होलीका दहन कहा जाता है। अगले दिन रंगों का त्योहार मनाया जाता है, जिसे धुलेंडी या रंग वाली होली कहते हैं।
छत्तीसगढ़ में होली का पर्व हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है, जिसमें फाग गीत गाए जाते हैं, जिन्हें फागुन गीत भी कहा जाता है। फागुन गीत में नगाड़े का वादन किया जाता है। ये गीत बसंत पंचमी से लेकर फाल्गुन तेरस तक गाए जाते हैं। छत्तीसगढ़ में फाग गीत मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं5
झूला
दादरा
फाग
झूला- इस शैली में भक्ति और प्रेम के भाव प्रकट किए जाते हैं।
उदाहरण-
मुख मुरली बजाय, मुख मुरली बजाय, छोटे से ष्याम कन्हैया
भुइयां लहसे डार, भुइंया लहसे डार,
ऊपर म बईठे कन्हैया, कन्हैया, कन्हैया,
मुख मुरली बजाय, मुख मुरली बजाय, छोटे से ष्याम कन्हैया
दादरा- यह गीत मधुर और नृत्य प्रधान होते हैं, जिनमें ताल और लय का विशेष महत्व होता है।
उदाहरण-
डफ बाजे पिया के संदेस मोरे ननकी,
सईया अभागा न आयो
काकर बर भेजंव मैं लिख लिख पतिया
काकर बर भेजंव संदेस मोरे ननकी
सईया अभागा न आयो
ओकरे बर भेजंव मैं लिख लिख पतिया
ओकरे बर भेजंव मैं लिख लिख पतिया
सईया अभागा न आयो
फाग- फाग गीत होली की विशेषता हैं, जिनमें नगाड़े और मंजीरे की धुन के साथ हर्षोल्लास प्रकट किया जाता है।
उदहारण1-
चलो हाँ शुरू से, गनपति चरन मनाबो रे लाल-2
अरे गनपति चरन मनाबो शुरू से, गनपति चरन मनाबो रे लाल
गौरी के पियारे लाल, गौरी के पियारे लाल,
शुरू से, गनपति चरन मनाबो रे लाल
कवित्त- सदा भवानी दाहिनी, सन्मुख रहे गनेश,
पांच देव रक्षा करे, ब्रह्मा, विष्णु, महेश,
उदहारण 2-
चलो हाँ, भरन गये, अवघट पनिया झरना के-2
अरे अवघट पनिया झरना के, भरन गये अवघट झरना पनिया के,
जहाँ रोके यसोदा के लाल, जहाँ रोके यसोदा के लाल, भरण गये अवघट पनिया झरना के
निष्कर्षः
नगाड़ा छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है, जो लोक संगीत, धार्मिक अनुष्ठानों और सामाजिक आयोजनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह लोककला और शिल्प कौशल का उत्कृष्ट उदाहरण है, लेकिन आधुनिकता और शहरीकरण के चलते इसे संरक्षण की आवश्यकता है। सरकार और समाज के संयुक्त प्रयासों से नगाड़े की इस परंपरा को बचाया और अगली पीढ़ी के लिए संरक्षित किया जा सकता है। यह छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक पहचान और सामूहिक एकता का प्रतीक है।
सन्दर्भ सूचीः
1- www.webdunia.com
2. श्री मंथिर डौंडे से प्राप्त साक्षात्कार के अंश 06/12/2024
3. श्री रामू चक्रधारी से प्राप्त साक्षात्कार के अंश 06/12/2024
4. वही
5. श्री राजेन्द्र साहू जी से प्राप्त साक्षात्कार का अंश दिनांक 10/12/2021
Received on 04.02.2025 Revised on 10.03.2025 Accepted on 07.04.2025 Published on 05.06.2025 Available online from June 10, 2025 Int. J. of Reviews and Res. in Social Sci. 2025; 13(2):89-96. DOI: 10.52711/2454-2687.2025.00015 ©A and V Publications All right reserved
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